सुप्रीम कोर्ट ने वैवाहिक विवादों से जुड़े एक अहम फैसले में स्पष्ट किया है कि पति द्वारा अपने परिवार की आर्थिक मदद करना या पत्नी से घरेलू खर्चों का लेखा-जोखा रखने को कहना, अपने-आप में आपराधिक क्रूरता की श्रेणी में नहीं आता।
Supreme Court verdict on 498A: सुप्रीम कोर्ट ने वैवाहिक विवादों से जुड़े एक अहम फैसले में स्पष्ट किया है कि पति द्वारा अपने परिवार की आर्थिक मदद करना या पत्नी से घरेलू खर्चों का लेखा-जोखा रखने को कहना, अपने-आप में आपराधिक क्रूरता की श्रेणी में नहीं आता। अदालत ने कहा कि ऐसे आरोपों के आधार पर आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, जब तक कि मानसिक या शारीरिक क्षति के ठोस प्रमाण मौजूद न हों।
जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने अपने फैसले में यह टिप्पणी की। बेंच ने साफ शब्दों में कहा कि आपराधिक कानूनों का इस्तेमाल निजी रंजिश निकालने या हिसाब चुकता करने के औजार के रूप में नहीं किया जाना चाहिए।
किन परिस्थितियों में नहीं बनेगा आपराधिक मामला
अदालत ने कहा कि भारतीय समाज की एक वास्तविकता यह भी है कि कई परिवारों में पुरुष पारिवारिक वित्तीय मामलों पर नियंत्रण रखते हैं या उसमें सक्रिय भूमिका निभाते हैं। हालांकि, केवल इसी आधार पर पति या उसके परिवार के सदस्यों के खिलाफ आपराधिक क्रूरता का मामला दर्ज करना उचित नहीं है। पीठ ने अपने आदेश में कहा, “आरोपी-अपीलकर्ता (पति) द्वारा अपने परिवार के सदस्यों को पैसे भेजने की कार्रवाई को इस तरह नहीं देखा जा सकता कि वह आपराधिक अभियोजन का आधार बन जाए।”
अदालत ने यह भी जोड़ा कि पत्नी से खर्चों का एक्सेल शीट में हिसाब रखने को कहना, यदि आरोप को उसके सर्वोच्च रूप में भी स्वीकार कर लिया जाए, तो भी यह भारतीय दंड संहिता की धारा 498A के तहत क्रूरता की परिभाषा में नहीं आता।
आर्थिक दबदबा कब मन जाएगा?
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि पत्नी द्वारा लगाए गए ‘आर्थिक और वित्तीय दबदबे’ के आरोप, तब तक आपराधिक क्रूरता नहीं माने जा सकते, जब तक यह साबित न हो जाए कि इससे पत्नी को प्रत्यक्ष मानसिक या शारीरिक क्षति हुई है।
पीठ ने कहा कि केवल असहमति, घरेलू मतभेद या वित्तीय प्रबंधन को लेकर विवाद, अपने-आप में आपराधिक अपराध नहीं बन जाते। इसके लिए ठोस साक्ष्य आवश्यक हैं, जो यह दर्शाएं कि शिकायतकर्ता को गंभीर मानसिक उत्पीड़न या शारीरिक हिंसा झेलनी पड़ी है।
क्या था पूरा मामला?
मामले के अनुसार, शिकायतकर्ता पत्नी ने अपने पति और उसके परिवार के पांच सदस्यों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 498A और दहेज निषेध अधिनियम के तहत एफआईआर दर्ज कराई थी। दोनों की शादी दिसंबर 2016 में हुई थी।
पति और पत्नी, दोनों ही पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर थे और अमेरिका के मिशिगन राज्य में रह रहे थे। अप्रैल 2019 में दंपति के बेटे का जन्म हुआ। हालांकि, वैवाहिक विवाद बढ़ने के बाद पत्नी अगस्त 2019 में अपने बच्चे के साथ भारत लौट आई।
पत्नी का आरोप था कि पति उसे घरेलू खर्चों का पूरा ब्यौरा रखने के लिए मजबूर करता था और परिवार को पैसे भेजने के कारण उस पर आर्थिक दबाव बनाया जाता था। इन्हीं आरोपों के आधार पर उसने आपराधिक मुकदमा दर्ज कराया।
सुप्रीम कोर्ट की अहम टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में निचली अदालतों द्वारा दर्ज एफआईआर और आपराधिक कार्यवाही को खारिज करते हुए कहा कि ऐसे मामलों में अदालतों को बेहद सतर्क रहने की जरूरत है। पीठ ने कहा, “आपराधिक कानून का इस्तेमाल वैवाहिक संबंधों में असंतोष या निजी विवादों को सुलझाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। यह कानून केवल वास्तविक क्रूरता और उत्पीड़न के मामलों के लिए है।”
अदालत ने यह भी दोहराया कि धारा 498A का उद्देश्य महिलाओं को वास्तविक हिंसा और अत्याचार से बचाना है, न कि वैवाहिक मतभेदों को अपराध का रूप देना।
क्यों है यह फैसला अहम
यह निर्णय ऐसे समय आया है, जब वैवाहिक विवादों में धारा 498A के दुरुपयोग को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह स्पष्ट संदेश है कि हर घरेलू विवाद को आपराधिक चश्मे से नहीं देखा जा सकता और कानून का इस्तेमाल संतुलन के साथ होना चाहिए।
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