uttrakhand News : उत्तराखंड के कुमाऊं चैत्र में Makar Sanskranti मानाने का तरीका अन्य राज्यों से से अलग से है। जहाँ अन्य राज्यों में इस दिन खिचड़ी बनाने व खिचड़ी बाटने की परंपरा है वही उत्तराखंड में इस दिन “घुघुतिया” पर्व मानाने की परंपरा है। ghugutiya पर्व मानाने की परंपरा उतनी की पुराणी है जितनी पुराणी मकरसंस्कृति मानाने की है।
यह त्यौहार सूर्य के दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ने और प्रवासी पक्षियों के पहाड़ों पर लौटने का स्वागत करता है । यह त्यौहार कौवों का सम्मान करने के लिए भी मनाया जाता है, जिनके बारे में माना जाता है कि उन्होंने एक लोक कथा में एक बच्चे को साँप के काटने से बचाया था।
ghugutiya पर्व क्या है ?
यह त्यौहार सूर्य के दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ने और प्रवासी पक्षियों के पहाड़ों पर लौटने का स्वागत करता है। यह तयोहार मकर संक्रान्ति के दिन मनाया जाता है। इस दिन घर की महिलाये आटे , सूजी और गूढ़ के पानी को मिलाकर एक मीठा पकवान बनती है, जिसे “घुगुती” कहते है।
अगले दिन घर की महिलाये उन घुगुतियो की मालाएं बनाती है और बच्चो को पहनाती है। बच्चे बोहोत ख़ुशी से उन मालाओं को धारण करते है और पुरे गांव में घूमते है और ज़ोर ज़ोर से बोलते है “काले कौआ काले, घुघुति माला खा ले”
कौवे की विशेष मान्यता।
हलाकि कौवे को नकारात्मक शक्ति व ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है , पर सनातन धर्म में कौवे को विशेष महत्व दिया है।
इसके पीछे एक रोमांचिक कथा है। वैसे तोह कौवे की इतनी महत्वता के पीछे कई कथाये प्रचलित है पर इस कथा को बहुत महत्त्व दिया गया है।
त्रेता युग में एक कौवे ने भगवान राम की पत्नी सीता के पैर में चोंच मार दी. इससे माता सीता के पैर में घाव हो गया.
भगवान राम बुरी तरह क्रोधित हो उठे. उन्होंने एक तीर से कौवा की आंख फोड़ दी. दर्द से कराहते कौवे को देख भगवान राम द्रवित हो उठे. उन्होंने कौवे को वरदान दिया कि तुम्हें भोजन कराने से पितृ प्रसन्न हो जाएंगे. इसके बाद कौवे को सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा. यह कौवा कोई और नहीं, इंद्रदेव का बेटा जयंत था. कौवा यमराज का संदेश वाहक भी माना जाता है. कौवा पितरों का आश्रय स्थल के रूप में भी चिह्नित है. उसकी खूबियों के कारण शनिदेव ने वरदान दे रखा है. कौवा कभी किसी बीमारी से नहीं मर सकता. उसकी मृत्यु सिर्फ आकस्मिक दशाओं में हो सकती है. कालांतर में भी इस किवदंती को काफी बल मिला है. कौआ अपने पूरे जीवन काल में लगभग रोगमुक्त बना रहता है.
उत्तराखंड की लोकपर्व की है प्रचलित कथा
उत्तराखंड में त्योहार के पीछे एक कथा प्रचलित है. कथा के अनुसार बात उन दिनों की है, जब कुमाऊं में चन्द्रवंश के राजा राज करते थे. राजा कल्याण चंद की कोई संतान नहीं थी. उनका कोई उत्तराधिकारी भी नहीं था. उनका मंत्री सोचता था कि राजा के बाद राज्य मुझे ही मिलेगा. एक बार राजा कल्याण चंद सपत्नीक बाघनाथ मंदिर में गए और संतान के लिए प्रार्थना की. बाघनाथ की कृपा से उनको एक पुत्र की प्राप्ति हुई. उसका नाम निर्भयचंद पड़ा. निर्भय को उसकी मां प्यार से ‘घुघुति’ बुलाया करती थी. घुघुति के गले में एक मोती की माला थी.
माला में घुंघुरू लगे हुए थे. घुंघरू से सुसज्जित मोती की माला को पहनकर घुघुति बहुत खुश रहता था. जिद करने कर मां कहती कि जिद न कर, नहीं तो मैं माला कौवे को दे दूंगी. उसको डराने के लिए कहती कि ‘काले कौवा काले घुघुति माला खा ले’. मां की बात सुनकर कई बार कौवा आ जाता. उसे देखकर घुघुति जिद छोड़ देता. कौवे के आने पर मां खाने को दे देती. धीरे-धीरे घुघुति की कौवों के साथ दोस्ती हो गई.
राजपाट की उम्मीद लगाए बैठा मंत्री घुघुति को मारने की सोचने लगा. मंत्री ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर षड्यंत्र रचा. एक दिन जब घुघुति खेल रहा था, तब उसे चुप-चाप उठाकर ले गया. घुघुति को जंगल की ओर ले जाने के दौरान एक कौवे ने देख लिया. कौवा जोर-जोर से कांव-कांव करने लगा. उसकी आवाज सुनकर घुघुति जोर-जोर से रोने लगा और अपनी माला को उतारकर दिखाने लगा. उत्तराखंड में त्योहार का मतलब पुरानी संस्कृति को याद करना है. आज भी कुमाऊं में त्योहार को धूमधाम से मनाया जाता है. सुबह से बच्चे काफी उत्साहित रहते हैं. सुबह सुबह घुघुती की माला गले में डालकर कव्वे को बुलाते हैं.
मकर संक्रांति: खिचड़ी का पर्व, परंपराएं और मान्यताएं