
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़
Presidential assent to bills: पिछले हफ्ते ही सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति और राज्यपालों को बिलों को मंजूरी देने की एक समय सीमा निर्धारित की थी। इस पर अब उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की नाराजगी सामने आई है। उनका कहना है कि कोर्ट राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकता है। हम ऐसे हालात नहीं बना सकते हैं जहां पर राष्ट्रपति को कोई निर्देश देना पड़े।
Presidential assent to bills: क्या कहता है अनुच्छेद 142
संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट को मिले विशेष अधिकार लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ 24*7 उपलब्ध न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है। आपको बता दे की अनुच्छेद 142 देश के सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार देता है कि वह कंप्लीट जस्टिस करने के लिए कोई भी आदेश, निर्देश या निर्णय ले सकता है चाहे वह कोई भी मामला हो। लोकतंत्र में चुनी गई सरकार बहुत खास होती है और सभी संस्थाओं को अपनी अपनी सीमाओं में रहकर ही कार्य करना चाहिए। उपराष्ट्रपति ने साफ-साफ कहा कि कोई भी संस्था संविधान के ऊपर नहीं है।
Presidential assent to bills: कोर्ट ने कहा था “राज्यपाल की तरफ से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के अंदर लेना होगा फैसला”
सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि राज्यपाल की तरफ से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के अंदर फैसला सुनाना पड़ेगा। आपको बता दे की 8 अप्रैल को उच्चतम न्यायालय ने तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल के मामले में एक ऐतिहासिक निर्णय लिया था। कोर्ट का कहना था कि राज्यपाल को विधानसभा की ओर से भेजे गए बिल पर एक महीने के अंदर ही फैसला लेना होगा। इस निर्णय के दौरान अदालत में राज्यपालों की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर भी स्थिति स्पष्ट कर दी थी। यह आदेश 11 अप्रैल को सार्वजनिक कर दिया गया था। 11 अप्रैल की रात वेबसाइट पर अपलोड किए गए इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 201 का हवाला दिया और सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “राज्यपालों की ओर से भेजे गए बिल के मामले में राष्ट्रपति के पास पूर्ण वीटो या पॉकेट वीटो का अधिकार नहीं है। उनके फैसले की न्यायिक समीक्षा भी की जा सकती है और न्यायपालिका बिल की संवैधानिकता का फैसला न्यायपालिका करेगी।”
Presidential assent to bills: राज्यपाल की तरफ से राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर सुप्रीम कोर्ट के चार बिंदु
निर्णय लेना पड़ेगा: सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि अनुच्छेद 201 के अनुसार जब विधानसभा किसी बिल को पास कर देता है। तो उसे राज्यपाल के पास भेजा जाए और राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज दे। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति को बिल पर मंजूरी देनी पड़ेगी या फिर बताना पड़ेगा की मंजूरी नहीं दे रहे हैं।
ज्यूडिशल रिव्यू: सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि अनुच्छेद 201 के अनुसार राष्ट्रपति निर्णय की न्यायिक समीक्षा भी की जा सकती है। यदि बिल में केंद्र सरकार के निर्णय को प्राथमिकता दी गई हो तो कोर्ट मनमानी या दुर्भाग्य के आधार पर बिल की समीक्षा करेगा।
राज्य सरकार को कारण बताने होंगे: सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि जब भी कोई समय सीमा तय हो तो तय की गयी समय सीमा के अंदर फैसला करना चाहिए। राष्ट्रपति को बिल मिलने के 3 महीने के अंदर फैसला लेना ही पड़ेगा यदि देरी होती है तो उसका कारण भी बताना पड़ेगा।
बार-बार बिल को लौटाया नहीं जा सकता: सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि राष्ट्रपति किसी भी बिल को राज्य विधानसभा को संशोधन या पुनर्विचार के लिए वापस भेज देते हैं। विधानसभा उसे फिर से पास करती है तो राष्ट्रपति को उस बिल पर फाइनल डिसीजन लेना ही पड़ेगा और बार-बार बिल को वापस करने की प्रक्रिया पर रोक लगानी होगी।