Shabana Azami: बर्थडे फीचर

Shabana Azami की कहानी एक साहसिक और कलात्मक प्रतिभा की कहानी है जहाँ भारतीय सिनेमा में एक बड़ा और सफल करियर और सोशल एक्टिविज्म एक दूसरे के समानांतर चलते दिखाई देंगे।

Shabana Azami
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Shabana आज़मी का जन्म और शुरूआती जीवन:

18 सितंबर 1950 को प्रसिद्ध कवि कैफ़ी आज़मी और थिएटर अभिनेत्री शौकत आज़मी के यहाँ जन्मी शबाना कला, एक्टिविज्म और राजनीतिक आदर्शों के रंगीन माहौल में पली-बढ़ीं। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने केवल सिल्वर स्क्रीन पर ही नहीं, बल्कि उन लोगों के दिलों में भी एक अमिट छाप छोड़ी, जिनके लिए उन्होंने संघर्ष किया।

हैदराबाद में पली-बढ़ी शबाना के शुरूआती जीवन पर उनके माता-पिता द्वारा माने जाने वाले वामपंथी मूल्यों का गहरा प्रभाव पड़ा। उनका घर सिर्फ एक रहने की जगह नहीं था बल्कि यह इंटेल्लिचुअल्स और कार्यकर्ताओं के इकठ्ठा होने की जगह थी जहाँ विचार चाय की तरह स्वतंत्रता से बहते थे। अक्सर सुबह होती और शबाना को रातभर बहस के बाद थके हुए कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य फर्श पर सोते नज़र आते। ऐसे वातावरण में, शबाना में जल्द ही सोशल अवेयरनेस आ गयी जिसका असर बाद में उनके जीवन और करियर के निर्णयों पर पड़ा।

Shabana Azami
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एक युवा लड़की के रूप में, Shabana Azami भारतीय साहित्य और संगीत की दिग्गज हस्तियों से घिरी रहती थीं। फैज़ अहमद फैज़, जोश मलीहाबादी और बेगम अख्तर जैसी हस्तियाँ उनके घर की नियमित मेहमान थीं। मात्र ग्यारह वर्ष की आयु में, प्रसिद्ध कवि अली सरदार जाफ़री ने उन्हें ‘शबाना’ नाम दिया। लेकिन घर पर, वह सिर्फ “मुन्नी” थीं।

फ़िल्मी दुनिया में Shabana Azami का आना:

Shabana Azami ने क्वीन मैरी स्कूल में पढ़ाई की और बाद में मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज से मनोविज्ञान में डिग्री पूरी की। यह एक सामान्य शिक्षा की लाइन थी और इसका फ़िल्मी दुनिया से कुछ लेना देना नहीं था। लेकिन फिर उन्होंने फिल्म और टेलीविज़न इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (FTII) पुणे में एक छात्र फिल्म ‘सुमन’ में जया भादुरी की बेहद सशक्त परफॉरमेंस देखीं। यह परफॉरमेंस उनके दिमाग पर छा गयी और उन्होंने अभिनय की संभावनाओं के बारे में सोचा। जया के प्रदर्शन से मोहित होकर, शबाना ने सोचा, “अगर मैं भी FTII जाकर कुछ ऐसा हासिल कर सकती हूं, तो मुझे यही करना है।”

Shabana Azami की पहली फिल्म:

उनका यह फैसला सही साबित हुआ। 1973 में FTII से ग्रेजुएट होने के बाद जल्दी ही शबाना आज़मी को श्याम बेनेगल के निर्देशन में बनी पहली फिल्म अंकुर (1974) में कास्ट किया गया। यह फिल्म सिर्फ उनके करियर का शुभारंभ करने वाली फिल्म ही नहीं बनी बल्कि इस फिल्म ने उनकी अभिनय शैली को परिभाषित कर दिया।

शबाना ने इस फिल्म में लक्ष्मी का किरदार निभाया, जो एक विवाहित महिला है और ग्रामीण भारत में एक प्रतिबंधित संबंध में पड़ जाती है। यथार्थवाद पर आधारित इस फिल्म में उनके अभिनय ने चार चाँद लगा दिए और इसने उन्हें उनके पांच राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में से पहला दिलाया। 

इस फिल्म के बाद Shabana Azami ने काफी फिल्मो में औरतो की वास्तविक ज़िन्दगी से जुड़े किरदार निभाए, ऐसे किरदार जहाँ औरतो के जीवन की कठिनाइयों को दिखाया गया । इस दौर में वे ग्लैमरस हीरोइन की भूमिका नहीं निभा रही थीं। उन्होंने ऐसी भूमिकाएं कई फिल्मों में निभाईं, जैसे कि अर्थ (1983), जिसमें उन्होंने अपने पति द्वारा धोखा दी गई पत्नी का किरदार निभाया, या पार (1985), जिसमें उन्होंने एक गरीब महिला का किरदार निभाया।

फ़िल्मी दुनिया की कड़वी यादें:

हालांकि, Shabana Azami की इस फ़िल्मी यात्रा में संघर्ष भी हैं। खुद शबाना आज़मी ने याद करते हुए एक बार बताया कि कैसे मनमोहन देसाई निर्देशित परवरिश फिल्म के सेट पर कोरियोग्राफर कमल यादव ने शबाना कि बेइज्जती की क्योंकि उन्हें डांस करना नहीं आता था।

बताते हैं की जब शबाना ने कोरियोग्राफर, कमल मास्टर से एक रिहर्सल के लिए कहा तो न सिर्फ उन्होंने मना कर दिया बल्कि सेट पर सबके सामने व्यंग्यात्मक रूप से कहा, “अब शबाना जी कमल मास्टर को सिखाएंगी कि क्या कदम उठाने हैं।” शबाना ने अपमानित महसूस किया और नंगे पैर ही वे सेट से बाहर चली गयी ।

Shabana Azami
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आँखों में आंसू थे और उन्होंने यह कसम खाई कि वह फिर कभी हिंदी सिनेमा में काम नहीं करेंगी। यह निर्देशक मनमोहन देसाई ही थे जिन्होंने माफी मांगी और उन्हें वापस आने के लिए मनाया। 

विवादास्पद फिल्म:

इन सब उतार चढ़ावो के बावजूद Shabana Azami अपने काम के लिए ईमानदार रही। उन्होंने ऐसी भूमिकाओं को चुना जो न केवल उन्हें एक अभिनेत्री के रूप में उनके कम्फर्ट जोन से बाहर निकालती थी बल्कि भारतीय सिनेमा के लिए भी नयी सोच होती थी। दीपा मेहता की फिल्म फायर (1996) एक ऐसी ही फिल्म थी।

राधा का किरदार निभाते हुए जो अपनी देवरानी के साथ प्यार में पड़ जाती है, शबाना ने इस फिल्म में समलैंगिक संबंधों का चित्रण किया जो भारतीय सिनेमा के लिहाज से भी क्रांतिकारी था। इस फिल्म के खिलाफ जगह जगह विरोध प्रदर्शन हुए, लेकिन शबाना, अपनी आदत के अनुसार, कहानी और उसके द्वारा दिए जा रहे संदेश का बचाव करने में डटी रहीं।

इस भूमिका ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई। इस फिल्म से उन्हें शिकागो फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए सिल्वर ह्यूगो पुरस्कार भी मिला।

Shabana Azami व्यक्तिगत जीवन:

अपने अभिनय करियर की तरह ही शबाना का व्यक्तिगत जीवन भी उतना ही जुनून से भरा हुआ था। 1970 के दशक के शुरू में, उनकी सगाई बेंजामिन गिलानी से हुई लेकिन यह रिश्ता जल्दी ही टूट गया। अंततः, शबाना ने कवि और गीतकार जावेद अख्तर के साथ एक विवादास्पद प्रेम कहानी के बाद शादी कर ली।

विवादास्पद इसलिए क्योंकि अख्तर पहले से ही शादीशुदा थे और उनके दो बच्चे थे। Shabana Azami के माता-पिता ने शुरू में इस विवाह का विरोध किया। लेकिन इन्होने 1984 में शादी कर ली और आज वे  भारतीय सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित और बौद्धिक रूप से संपन्न जोड़ों में से एक हैं।

Shabana Azami
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Shabana Azami और सोशल एक्टिविज्म:

सिल्वर स्क्रीन की चकाचौंध के बाहर Shabana Azami ने काफी सोशल एक्टिविज्म की है। चाहे स्वामी अग्निवेश और असगर अली इंजीनियर के साथ सांप्रदायिक सद्भाव के लिए मार्च करना हो, या मुंबई में झुग्गी-झोपड़ी निवासियों के अधिकारों के लिए लड़ना, वे अपने सिद्धांतो के साथ कड़ी रही। 1989 में उन्होंने सांप्रदायिक शांति के लिए दिल्ली से मेरठ तक मार्च किया।

1993 के मुंबई दंगों के बाद वह धार्मिक उग्रवाद की कट्टर आलोचक बन गईं और एकता और न्याय की आवाज़ को इन्होने मजबूत किया। उनकी सामाजिक मुद्दों के प्रति प्रतिबद्धता भारत की सीमाओं से बाहर भी फैली है। संयुक्त राष्ट्र की गुडविल एंबेसडर के रूप में, शबाना ने एचआईवी/एड्स जैसे मुद्दों पर जागरूकता बढ़ाई। 

Shabana Azami आज भी अभिनय की दुनिया में सक्रिय हैं। उनकी हाल की भूमिकाओं में से एक, 2023 की फिल्म रॉकी और रानी की प्रेम कहानी में जमिनी की भूमिका एक बार फिर यह बताती है कि पांच दशकों के बाद भी शबाना गरिमा और गहराई के साथ स्क्रीन पर छा जाती हैं।

इन सबके बीच, Shabana Azami एक सच्ची कलाकार बनी हुई हैं—एक ऐसी महिला जो अपने चित्रित किये गए किरदारों की ही तरह खुद भी समय और समाज के प्रवाह के खिलाफ खड़े होने से नहीं डरतीं, परंपराओं को तोड़ने से नहीं झिझकतीं, और एक ऐसे जीवन को जीने से भी नहीं डरतीं जिसका मार्गदर्शन सिर्फ उनका दिल और उनके दिमाग करते है। 

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