Uttarakhand Lok Sanskriti Diwas: क्यों मनाया जाता है उत्तराखंड लोक संस्कृति दिवस? जानिए पूरी कहानी
Uttarakhand Lok Sanskriti Diwas: हर साल 24 दिसंबर को उत्तराखंड में लोक संस्कृति दिवस मनाया जाता है। यह दिन केवल एक तारीख नहीं, बल्कि उत्तराखंड की आत्मा, उसकी पहचान और उसकी परंपराओं को याद करने का अवसर है। यह दिवस उत्तराखंड के गांधी कहे जाने वाले स्वर्गीय इंद्रमणि बडोनी की जयंती पर मनाया जाता है, जिन्होंने अपना पूरा जीवन पहाड़, संस्कृति और अलग राज्य के सपने को समर्पित कर दिया।
राज्य सरकार ने वर्ष 2014 में 24 दिसंबर को लोक संस्कृति दिवस के रूप में घोषित किया, ताकि नई पीढ़ी अपनी जड़ों को पहचाने और लोक परंपराएं समय के साथ खो न जाएं ।
Father of Uttarakhand Movement
इंद्रमणि बडोनी केवल एक नेता नहीं थे, बल्कि एक संस्कृत कर्मी, समाजसेवी और लोक संस्कृति के सच्चे रक्षक थे। उनका जन्म 24 दिसंबर 1925 को टिहरी गढ़वाल के अखोड़ी गांव में हुआ था। बचपन से ही वे बेहद मेधावी थे और सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय रहते थे।
रामलीला, लोकनाट्य, लोकगीत और सांस्कृतिक आयोजनों के ज़रिए उन्होंने गांव-गांव जाकर लोगों को जोड़ा। बाद में वे विधायक बने, लेकिन सत्ता से ज़्यादा उन्हें पहाड़ के लोगों की चिंता रही। जब उन्हें लगा कि अलग राज्य के बिना पहाड़ की समस्याएं नहीं सुलझेंगी, तो उन्होंने उत्तराखंड आंदोलन का नेतृत्व किया। उनका आंदोलन पूरी तरह गांधीवादी और अहिंसक था, इसी वजह से उन्हें “पर्वतीय गांधी” भी कहा गया।
लोक संस्कृति दिवस मनाने का उद्देश्य
लोक संस्कृति दिवस मनाने का सबसे बड़ा मकसद है—
- गढ़वाली, कुमाऊँनी और जौनसारी भाषा को बढ़ावा देना
- लोकगीत, लोकनृत्य और परंपराओं को जीवित रखना
- नई पीढ़ी को अपनी संस्कृति से जोड़ना
- यह समझाना कि हमारी पहचान हमारी लोक संस्कृति से है
अगर लोक संस्कृति खत्म हो गई, तो हमारी पहचान भी भीड़ में खो जाएगी।
कैसे मनाया जाता है लोक संस्कृति दिवस?
इस दिन उत्तराखंड के स्कूलों, कॉलेजों और संस्थानों में खास आयोजन होते हैं। सुबह की प्रार्थना स्थानीय भाषा में होती है। इंद्रमणि बडोनी के जीवन पर चर्चा की जाती है और उनके योगदान को याद किया जाता है।
कार्यक्रमों में—
- झुमैला, चांचरी जैसे लोकनृत्य
- गढ़वाली, कुमाऊँनी और जौनसारी लोकगीत
- पारंपरिक वेशभूषा जैसे पिछौड़ा, अंगरा
- स्थानीय व्यंजन जैसे भट्ट के डुबके, अरसा, गुलगुला
- लोक वाद्य यंत्र ढोल-दमाऊ, हुड़का
इन सबके ज़रिए पहाड़ की सोंधी खुशबू और संस्कृति मंच पर उतर आती है ।
लोक संस्कृति क्यों है ज़रूरी?
लोक संस्कृति हमें सिखाती है—
- प्रकृति के साथ संतुलन में रहना
- समाज को जोड़कर रखना
- सरल जीवन और गहरे संस्कार
गढ़वाल, कुमाऊँ और जौनसार—तीनों की संस्कृति अलग-अलग होते हुए भी एक ही उत्तराखंड की पहचान बनाती है। यही विविधता उत्तराखंड को खास बनाती है।
आज की पीढ़ी की जिम्मेदारी
आज मोबाइल और सोशल मीडिया के दौर में लोक संस्कृति धीरे-धीरे पीछे छूट रही है। ऐसे में लोक संस्कृति दिवस हमें याद दिलाता है कि—“अपनी भाषा बोलना, अपने गीत गाना और अपने त्योहार मनाना कोई पिछड़ापन नहीं, बल्कि अपनी पहचान पर गर्व करना है।”
अगर बच्चे अपनी मातृभाषा में दो बोल बोल लें, लोकगीत गुनगुना लें और अपनी परंपराओं को समझ लें, तो यही लोक संस्कृति दिवस की सबसे बड़ी सफलता होगी।
निष्कर्ष
उत्तराखंड लोक संस्कृति दिवस सिर्फ एक आयोजन नहीं, बल्कि एक संकल्प है—
अपनी संस्कृति को बचाने का,
अपनी पहचान को आगे बढ़ाने का,
और इंद्रमणि बडोनी जैसे महापुरुषों के सपनों को जीवित रखने का।
24 दिसंबर हमें याद दिलाता है कि उत्तराखंड की असली ताकत उसकी लोक संस्कृति में है।
यह भी पढ़े
International Human Solidarity Day: एकजुटता की ताकत, जानिए क्यों 20 दिसंबर इंसानियत का दिन है?




