
Birsa Munda Punyatithi 2025: अंग्रेजों की चाल और आदिवासियों की लड़ाई!
Birsa Munda Punyatithi 2025: भगवान बिरसा मुंडा एक स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने ब्रिटिश राज्य के दौरान 19वीं शताब्दी के अंत में झारखंड में हुए आदिवासी धार्मिक सहस्राब्दी आंदोलन का नेतृत्व किया था। प्रत्येक वर्ष 9 जून को उनकी पुण्यतिथि मनाई जाती है। अंग्रेजों ने बिरसा मुंडा को धोखे से पकड़ लिया और जेल में जहर देकर उनकी हत्या कर दी, और लोगों को उनकी मौत और अस्वाभाविक बताया।
कौन थे बिरसा मुंडा?
बिरसा मुंडा एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे जिनका जन्म 15 नवंबर 1875 में एक गरीब किसान के घर में हुआ था। उनका जन्म अपने ननिहाल में हुआ था जो अकड़ी प्रखंड के बीहड़ जंगलों के बीच बसे चालकांड गांव के बहम्बा टोले में था । उनके पिता का नाम सुगना मुंडा था और उनकी माता का नाम कमी मुंडा था।
उन्होंने आदिवासियों के लिए आवाज उठाई और स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत के आदिवासी समुदाय के लोग बिरसा मुंडा को भगवान के रूप में पूछते हैं और उनको धरतीबा के नाम से भी जाना जाता है।
बिरसा मुंडा का आदिवासी संघर्ष
यह बात है 19वीं साड़ी की जब आखिरी वर्षों में अंग्रेजों ने एक चालक नीति अपनाई, दरअसल अंग्रेजों ने आदिवासियों को उनके ही जल, जंगल और जमीन से दूर करना शुरू कर दिया था, जब आदिवासियों ने इसके खिलाफ आवाज उठानी शुरू करी तो उनकी बातों को कोई भी नहीं सुनता था, इसका कारण यह था कि आदिवासियों की आबादी काफी कम थी और ना ही उनके पास आधुनिक हथियार थे। आदिवासी समुदाय के लोग अंग्रेजों के समक्ष विद्रोह करने में असफल रहते थे और अत्याचार का निशाना बनते रहते थे।
यह सब देखकर बिरसा मुंडा काफी हताश हुए, इसके बाद 1895 में उन्होंने अंग्रेजों की जमींदारी प्रथा और टैक्स वसूली के खिलाफ आंदोलन करना शुरू कर दिया।उनका कहना था कि यह आंदोलन सिर्फ एक लड़ाई नहीं बल्कि आदिवासियों के हक की बात और उनकी पहचान है। यह एक आंदोलन नहीं बल्कि संस्कृति को बचाने की एक पहला है। बिरसा मुंडा ने सभी आदिवासियों को हिम्मत दी और एकजुट किया ताकि वह अंग्रेजों के खिलाफ अपनी आवाज उठा सके। बिरसा मुंडा के चलाए गए आंदोलन को “उलगुलान” कहा गया।
आदिवासियों के भगवान बिरसा मुंडा
इसके बाद धीरे-धीरे करके विश्राम मुंडा को अपने समाज में गरीबी और दुख दर्द का पता लगने लगा और उनका दुख समझ में आने लगा। उसे समय वह कुछ ईसाई मिशनरी लोग आदिवासी को धर्म बदलने की कोशिश करते रहते थे, वह कहते थे कि गरीबी और बीमारी ईश्वर की सजा है हमारे साथ आओ तो खाना पीना और कपड़े मिलेंगे।
जहां कई सारे लोग अंग्रेजों के चाल में फस रहे थे, वही बिरसा मुंडा ने इस सोच का विरोध किया। बिरसा मुंडा ने वैष्णव धर्म को अपनाया और आदिवासियों को सिखाया की बीमारी को भगवान की सजा न माने बल्कि उसका इलाज करें। आपको बता दे कि उसे समय में हैजा, चेचक जैसी बीमारियां काफी फैली हुई थी। बिरसा मुंडा ने उन बीमारियों से बचने का और इलाज करने का उपाय बताया।
जब लोगों को समझ आने लगा की बिरसा मुंडा उन्हीं के हित के बारे में बातें करता है, तो लोगों ने उनको भगवान का दर्जा देना शुरू कर दिया “धरती आबा” का नाम दिया। जब बिरसा मुंडा को भगवान का दर्जा मिलने लग गया इसके बाद वह अंग्रेजों की आंखों में खटकने लग गए, हालांकि कारण यह भी था की सभी आदिवासी लोग बिरसा मुंडा की बातें मानते थे और अंग्रेजों को लगता था कि वह उनके काम के बीच रुकावट पैदा करते हैं।
बिरसा मुंडा की गिरफ्तारी
सभी अंग्रेज क्रांतिकारी बिरसा मुंडा से परेशान हो गए थे और उनको मरवाने के षड्यंत्र बनाते रहते थे। एक बार अंग्रेजों ने चालाकी से बिरसा मुंडा को पकड़ने के लिए उन्हीं के इलाके के एक चौकीदारी को₹5 का लालच दिया, बदले में बिरसा मुंडा को पकड़वाने का वादा लिया। एक बार भगवान बिरसा मुंडा स्नान कर रहे थे, तभी उसे चौकीदार ने अंग्रेजों को इस बात की सूचना दे दी जिसके बाद उनको घेर लिया गया और जेल में बंद कर दिया गया।
इस बात का कई जगह जिक्र किया गया है कि बिरसा मुंडा को रोगोद गांव से पकड़ा था, हालांकि धर्मगुरु देवगन बरसा बाबा की अगुवाई में 1999 में सिंहभूम के शंकर गांव में विशाल सभा हुई थी, वह कहा गया था कि बिसरा मुंडा की गिरफ्तारी रोगों से नहीं, शंकर गांव के पुलपुल दा नाम के स्थान से हुई थी।
जहर देकर मारे गए बिरसा मुंडा!
अंग्रेजों ने सभी लोगों को बताया कि जेल में उनकी मृत्यु बीमारी के चलते हुई, उन्होंने उनकी मृत्यु को अस्वाभाविक भी बताया। लेकिन सच्चाई तो यह थी की, बिरसा मुंडा को जेल में जहर दे दिया गया था इसके बाद 9 जून 1900 में उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के बाद उनके शरीर को अंग्रेजों ने कोकर नदी के तट पर दफना दिया था, उसे नदी के तट पर आज उनकी समाधि है। आज के समय में भी बिरसा मुंडा के गांव वाले और उनके ननिहाल वाले शुक्रवार के दिन वहां एकत्रित होकर उनको पुष्पांजलि अर्पित करते हैं।
यह भी पढ़े
Kabirdas Jayanti 2025: संत कबीर का जीवन और संदेश,आज भी क्यों हैं वो ज़रूरी?