
पेरू के घने जंगलों में पाए जाने वाले सिनकोना पेड़ का इतिहास मलेरिया के इलाज से जुड़ा हुआ है। इस पेड़ की छाल से प्राप्त क्वीनाइन नामक दवा मलेरिया के उपचार में सहायक साबित हुई। क्वीनाइन को प्राप्त करने का एकमात्र तरीका सिनकोना पेड़ की छाल का उपयोग था, और यह 1944 तक एकमात्र प्रभावी इलाज माना गया।
मलेरिया और ब्रिटिश साम्राज्य
ब्रिटिश साम्राज्य जब दुनिया के विभिन्न हिस्सों में फैल रहा था, तो मलेरिया एक बड़ी समस्या बन गया। खासकर भारत में, जहां 1937 में हर दिन लगभग 1000 लोग मलेरिया के कारण मारे जाते थे। ऐसे में, ब्रिटिश अधिकारियों ने क्वीनाइन का उपयोग करना शुरू किया, जो उन्हें मलेरिया से बचने में मदद करता था।
क्वीनाइन और टॉनिक वॉटर
क्वीनाइन की कड़वाहट को कम करने के लिए इसे टॉनिक वॉटर में मिलाया गया। टॉनिक वॉटर, जिसे पहले बुखार की दवा के रूप में इस्तेमाल किया जाता था, एक प्रकार का सोडा था जिसमें क्वीनाइन मिला होता था। यह पहला कदम था, जब क्वीनाइन को पीने में आसान बनाया गया। 1858 में, पिट्स एंड कंपनी के इरास्मस बॉन्ड ने इसे पेटेंट करवाया और इसे ‘टॉनिक वॉटर’ के रूप में बेचना शुरू किया।
जिन और टॉनिक का मिलन
अब सवाल उठता है कि क्वीनाइन और जिन (जुनिपर बेरी से बनी शराब) का मिलन कैसे हुआ? कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ब्रिटिश सेना और अधिकारी जो क्वीनाइन का सेवन करते थे, उन्होंने इसे जिन के साथ मिलाकर पीना शुरू किया। इस मिश्रण को पहले 1868 में एक पत्रिका में उल्लेख किया गया था, जहां इसे एक पार्टी ड्रिंक के रूप में देखा गया। यह कॉकटेल जल्द ही लोकप्रिय हो गया और आज तक हर बार में एक लोकप्रिय ड्रिंक के रूप में मौजूद है।
Gin and Tonic का इतिहास न केवल कॉकटेल की दुनिया से जुड़ा है, बल्कि यह मलेरिया जैसी गंभीर बीमारी से जुड़ा हुआ एक दिलचस्प सफर भी है। ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के दौरान क्वीनाइन के उपयोग और इसके साथ मिलकर तैयार होने वाली ड्रिंक ने न केवल एक स्वास्थ्य समस्या का हल निकाला, बल्कि एक नए कॉकटेल के जन्म की नींव भी रखी। यह कहानी हमें यह भी याद दिलाती है कि कैसे एक साधारण दवाई से एक शानदार कॉकटेल का जन्म हो सकता है।