
Maa 2025 Review: पौराणिक डर की कहानी, लेकिन भावनाओं और डर में रह गई अधूरी
Maa 2025 Review: ‘मां’ एक पौराणिक-हॉरर फिल्म है जो देवी काली और रक्तबीज की कथा पर आधारित है। हालांकि दमदार आइडिया के बावजूद फिल्म डर पैदा करने में नाकाम रहती है। कमजोर CGI, धीमी कहानी और असरहीन क्लाइमेक्स इसे निराशाजनक बनाते हैं। केवल एक मां के देवी बनने वाला मोड़ ही थोड़ी देर के लिए दर्शकों को बांध पाता है।
Maa 2025 Review: ”फिल्म माँ”
‘मां’, जिसे छोरी फेम विशाल फुरिया ने निर्देशित किया है, एक बच्ची की बलि से शुरू होती है — और ये सब होता है चंद्रपुर गांव में। इसके बाद कहानी सीधा 40 साल आगे बढ़ जाती है।
अब हम मिलते हैं अंबिका (काजोल) से, जो अपने पति शुभंकर (इंद्रनील सेनगुप्ता) और बेटी श्वेता (खेरिन शर्मा) के साथ एक खुशहाल जिंदगी जी रही है। लेकिन किसी वजह से, ये परिवार चंद्रपुर शुभंकर के पुश्तैनी गांव जाने से कतराता है| हालांकि, शुभंकर के पिता की मौत के बाद मजबूरी में उसे गांव जाना पड़ता है… और वहीं उसकी भी मौत हो जाती है।
तीन महीने बाद, ग़म में डूबी अंबिका और श्वेता, जोयदेव (रोनित रॉय) के कहने पर चंद्रपुर जाती हैं ताकि वो अपने पुराने घर को बेच सकें। लेकिन अंबिका को नहीं पता वहां उसका सामना किस अंधेरे और डरावने सच से होने वाला है।
Maa 2025 Review: फिल्म की कहानी देवी काली और रक्तबीज की पौराणिक कथा पर आधारित है
फिल्म की कहानी देवी काली और रक्तबीज की पौराणिक कथा पर आधारित है — जो कि सुनने में वाकई बेहद दिलचस्प और दमदार लगती है। मान्यता के अनुसार, राक्षस रक्तबीज की एक बूंद खून जमीन पर गिरते ही एक नया राक्षस जन्म लेता है, और यही दानव कई दशकों तक गांव को डराता रहता है।
कागज़ पर ये सब बहुत शानदार लगता है। लेकिन परदे पर कहानी को जमने में काफी वक्त लग जाता है। फिल्म का पहला हिस्सा बहुत धीमा है ना डर पैदा होता है, ना ही दर्शक उस डरावनी दुनिया में पूरी तरह खो पाते हैं।
फिल्म का दूसरा हिस्सा थोड़ी रफ्तार पकड़ता है, और कहानी क्लाइमेक्स की ओर बढ़ती है। लेकिन जिस तेज़ी और असर के साथ अंत होना चाहिए था, वो महसूस नहीं होता। क्लाइमेक्स थोड़ा ढीला पड़ता है — न तो वो उतनी गति पकड़ता है, और न ही उतना प्रभाव छोड़ता है जितना उम्मीद की गई थी।
Maa 2025 Review: फिल्म में कहीं न कहीं सामाजिक संदेश छिपा है
फिल्म में कहीं न कहीं सामाजिक संदेश छिपा है रिवाज़ों से भरे रक्त, भारी-भरकम VFX के धुएं और ज़बरदस्ती की भारी बांग्ला ऐक्सेंट में बोले गए संवादों के बीच। इसके साथ-साथ एक हल्का-सा नारीवादी संदेश भी देने की कोशिश की गई है। लेकिन ये सब ज़्यादा असर नहीं छोड़ पाता।
मंशा साफ थी एक मां का अपने बच्चे के लिए “मां” (देवी) बन जाना, ये विचार क्लाइमेक्स में अच्छे से दिखाया गया है। और यही वो एक पल है जहां दर्शक थोड़ी देर के लिए सच में जुड़ते हैं। काश पूरी फिल्म में ऐसे ही दमदार और उठाव भरे पल होते तो शायद ‘मां’ वाकई यादगार बन सकती थी।
अब बात करते हैं फिल्म की सबसे बड़ी उम्मीद — उस अलौकिक शक्ति की, जो कहानी का मुख्य आकर्षण मानी जा रही थी। इस डरावनी शक्ति को फिल्म में काफी स्क्रीनटाइम दिया गया है, लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि फिल्म के मेकर्स ने “ज्यादा दिखाना” और “डर पैदा करना” एक ही चीज़ समझ लिया।
जो राक्षसी रूप आपकी रूह तक कांपाने वाला होना चाहिए था, वो ऐसा लगता है मानो किसी मिड-बजट टीवी सीरियल से भागकर आया हो और रास्ते में CGI फिल्टर में अटक गया हो। डराने के बजाय ये रूप ज़्यादा बनावटी और कमज़ोर लगता है, जिससे उस भयानक माहौल की तीखापन पूरी हो जाती है।
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