हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के एक अहम फैसले के बाद अरावली पहाड़ियों की कानूनी पहचान को लेकर नए सवाल खड़े हो गए हैं।
भारत की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में शामिल Aravalli hills एक बार फिर राष्ट्रीय बहस के केंद्र में है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के एक अहम फैसले के बाद अरावली पहाड़ियों की कानूनी पहचान को लेकर नए सवाल खड़े हो गए हैं। अदालत ने अरावली की पहाड़ियों की एक नई कानूनी परिभाषा को मंजूरी दी है, जिसे लेकर पर्यावरण विशेषज्ञ और संरक्षण से जुड़े संगठन गंभीर आशंकाएं जता रहे हैं। यह फैसला विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन की चुनौती को एक बार फिर सामने लाता है।
क्या है Aravalli hills की नई कानूनी परिभाषा?
नवंबर-दिसंबर 2025 के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने एक केंद्रीय समिति द्वारा प्रस्तावित अरावली पर्वतमाला की नई कानूनी परिभाषा को स्वीकार कर लिया। इस परिभाषा के तहत अब केवल वही पहाड़ियां अरावली का हिस्सा मानी जाएंगी, जिनकी ऊंचाई आसपास की जमीन से कम से कम 100 मीटर अधिक हो। अदालत का तर्क था कि अरावली पांच राज्यों—गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में फैली हुई है और हर राज्य में इसकी पहचान और संरक्षण को लेकर अलग-अलग नियम लागू थे। इन्हीं विसंगतियों को दूर करने के लिए एक समान परिभाषा तय करने हेतु केंद्रीय समिति का गठन किया गया था।
पर्यावरणविदों की चिंता क्यों बढ़ी?
इस फैसले के बाद पर्यावरणविदों और शोधकर्ताओं ने कड़ी आपत्ति जताई है। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (FSI) की एक आंतरिक रिपोर्ट के अनुसार, अरावली क्षेत्र में मैप की गई कुल 12,081 पहाड़ियों में से केवल 1,048 पहाड़ियां ही 100 मीटर की ऊंचाई के मानक पर खरी उतरती हैं। यानी कुल पहाड़ियों का महज 8.7 प्रतिशत हिस्सा ही नई परिभाषा के तहत कानूनी सुरक्षा में रहेगा। इसका सीधा मतलब यह है कि अरावली क्षेत्र का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा कानूनी संरक्षण से बाहर हो सकता है।
पर्यावरणविदों का कहना है कि इससे बड़ी संख्या में छोटी और मध्यम पहाड़ियां खनन के लिए खुल सकती हैं। इन पहाड़ियों के नष्ट होने से अरावली पर्वतमाला की भौगोलिक निरंतरता टूट जाएगी, जिससे इस प्राचीन श्रृंखला में बड़े अंतराल पैदा होंगे और इसका पारिस्थितिक संतुलन कमजोर पड़ जाएगा।
अरावली में खनन पर पूरी तरह प्रतिबंध क्यों नहीं?
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी स्पष्ट किया है कि Aravalli hills में खनन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने के पुराने अनुभव सकारात्मक नहीं रहे हैं। अदालत के अनुसार, पहले जब पूरी तरह बैन लगाया गया था, तब अवैध खनन में इजाफा हुआ, रेत माफिया ज्यादा सक्रिय हो गए और पर्यावरणीय नुकसान और बढ़ा। इसी अनुभव के आधार पर कोर्ट ने “बीच का रास्ता” अपनाने की बात कही है। फिलहाल कड़े नियमों के साथ सीमित खनन को अनुमति दी गई है, जबकि नई खनन परियोजनाओं को मंजूरी नहीं दी जा रही है।
अरावली पर्वतमाला का पर्यावरणीय महत्व
अरावली पर्वतमाला का महत्व केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि पर्यावरणीय और सामाजिक भी है। यह पर्वतमाला थार रेगिस्तान को पूर्वी राजस्थान, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली-एनसीआर की ओर बढ़ने से रोकने में प्राकृतिक दीवार की तरह काम करती है। करीब 20 करोड़ साल पुरानी अरावली भारत की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला मानी जाती है।
यह क्षेत्र भूजल रिचार्ज में अहम भूमिका निभाता है, खासकर राजस्थान और हरियाणा जैसे शुष्क इलाकों में। दिल्ली से गुजरात तक लगभग 650 किलोमीटर में फैली इन पहाड़ियों से चंबल, साबरमती और लूनी जैसी नदियों को पानी मिलता है। इसके अलावा अरावली जैव विविधता का भी बड़ा केंद्र है, जहां कई दुर्लभ वनस्पतियां और वन्यजीव पाए जाते हैं।
अरावली को नुकसान हुआ तो क्या असर पड़ेगा?
विशेषज्ञों का मानना है कि Aravalli hills को बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ तो इसके दूरगामी परिणाम होंगे। इससे धूल प्रदूषण बढ़ेगा, जल संकट गहराएगा और उत्तर-पश्चिम भारत में चरम मौसम की घटनाएं ज्यादा देखने को मिल सकती हैं। अरावली का वन आवरण वर्षा चक्र को संतुलित रखने में मदद करता है और गुजरात, राजस्थान, हरियाणा व दिल्ली जैसे राज्यों में सूखे की आशंका को कम करता है। पहाड़ियों के नष्ट होने से वर्षा का पैटर्न बदल सकता है, जिससे गर्मी का तनाव और बढ़ेगा। साथ ही, वन्यजीवों के आवास सिमटने से मानव-वन्यजीव संघर्ष की घटनाएं भी बढ़ सकती हैं।
माइनिंग के खिलाफ अब तक की कार्रवाई
Aravalli hills में खनन को लेकर सरकार और न्यायपालिका पहले भी सख्त कदम उठा चुकी हैं। 1990 के दशक में पर्यावरण मंत्रालय ने खनन नियमों को कड़ा करते हुए केवल पहले से स्वीकृत परियोजनाओं को ही अनुमति देने का आदेश दिया था। वर्ष 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने फरीदाबाद, गुरुग्राम और मेवात में खनन पर पूरी तरह रोक लगा दी। इसके बाद 2024 में अदालत ने अरावली में नई खनन लीज देने या पुरानी लीज के नवीनीकरण पर भी प्रतिबंध लगा दिया और सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी (CEC) को विस्तृत जांच के निर्देश दिए।
सीईसी ने सभी राज्यों को अरावली की वैज्ञानिक मैपिंग पूरी करने, खनन के लिए माइक्रो-लेवल पर्यावरण प्रभाव आकलन करने और इको-सेंसिटिव जोन में खनन पर रोक लगाने की सिफारिश की। नवंबर 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने इन सुझावों को स्वीकार कर लिया। वहीं जून 2025 में केंद्र सरकार ने ‘अरावली ग्रीन वॉल प्रोजेक्ट’ की शुरुआत की, जिसके तहत अरावली के 29 जिलों में पांच किलोमीटर के बफर जोन में हरित आवरण बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है।






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