
Kaalidhar Laapata Review : कमियों के बीच चमका अभिनय, 'कालिधर लापता' में अभिषेक की भावनात्मक जीत
Kaalidhar Laapata Review : आज के दौर में, जब फिल्में तेजी से बदलते दृश्य, हाई-ऑक्टेन एक्शन और मसालेदार डायलॉग्स से भरी होती हैं, वहीं कुछ फिल्में ऐसी भी होती हैं जो धीरे-धीरे दिल में उतरती हैं _ चुपचाप, लेकिन गहराई से। Kaalidhar Laapata उन्हीं फिल्मों में से एक है। यह फिल्म सिर्फ एक व्यक्ति की गुमशुदगी की कहानी नहीं है, बल्कि उस समाज का आईना है जहाँ आम आदमी की आवाज़ कहीं गुम होती जा रही है।
क्या होता है जब एक साधारण व्यक्ति अचानक गायब हो जाता है, और उसके पीछे न कोई सुराग होता है, न ही कोई चर्चा? कौन खोजता है उसे? कौन सवाल करता है सिस्टम से? इन्हीं सवालों से टकराती है फिल्म Kaalidhar Laapata, जिसमें अभिषेक बच्चन एक बार फिर अपनी दमदार मौजूदगी से दर्शकों के दिल में उतर जाते हैं। ‘दोस्ती और सपनों की कोई उम्र नहीं होती’, अभिषेक बच्चन की फिल्म ने छू लिया लोगों का दिल ।
मूवी रिव्यू
- रेटिंग: ★★★☆☆ (3/5)
- नाम:कालीधर लापता (Kaalidhar Laapata)
- कलाकार :अभिषेक बच्चन, मुहम्मद जीशान अयूब, दैविक बाघेला, निम्रत कौर
- निर्देशक :मधुमिता
- रिलीज डेट :Jul 04, 2025
- अवधि:1 Hrs 49 Min
- प्लेटफॉर्म :ZEE5 (जी 5)
- भाषा :हिंदीबजट :N/A
‘कालीधर लापता’ मूवी रिव्यू
अभिषेक बच्चन स्टारर ‘कालीधर लापता’ एक गंभीर और भावनात्मक फिल्म है, जो एक स्कूल टीचर की अचानक गुमशुदगी के ज़रिए सिस्टम की बेरुखी और समाज की संवेदनहीनता पर सवाल उठाती है।
अभिषेक ने अपने अब तक के सबसे सधे और गहरे किरदारों में से एक निभाया है — कम बोलकर ज़्यादा कहने वाला अभिनय।
निर्देशन और सिनेमैटोग्राफी सधे हुए हैं, फिल्म की गति थोड़ी धीमी है लेकिन संदेश बेहद मजबूत।
साउथ से सीधे स्क्रीन तक: तमिल फिल्म ‘के.डी’ की हिंदी रीमेक के रूप में आई ‘कालिधर लापता’
तमिल सिनेमा की सराही गई फिल्म K.D (2019) अब हिंदी में ‘कालिधर लापता’ के रूप में दर्शकों के सामने है। दिलचस्प बात ये है कि इस रीमेक को मूल फिल्म की ही निर्देशक मधुमिता ने तैयार किया है, जिससे कहानी की आत्मा बरकरार रही है। यह भावनात्मक और सोचने पर मजबूर कर देने वाली फिल्म अब ZEE5 पर स्ट्रीमिंग के लिए उपलब्ध है।
‘कालीधर लापता’ की कहानी:
फिल्म की कहानी एक स्कूल टीचर विवेक कौशिक के इर्द-गिर्द घूमती है, जो एक दिन अचानक बिना किसी वजह के गायब हो जाता है। उसका परिवार उसकी तलाश करता है, लेकिन पुलिस और सिस्टम उदासीन रहता है। कोई भी इस गुमशुदगी को गंभीरता से नहीं लेता क्योंकि विवेक एक आम आदमी है न कोई रसूख, न कोई ताकत।
जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, तो पता चलता है कि विवेक ने किसी घोटाले या सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाई थी, जिससे कुछ असरदार लोगों को खतरा था। संभव है कि उसी वजह से उसे लापता किया गया हो।
पूरी फिल्म इसी सवाल के साथ चलती है कि क्या एक आम इंसान की गुमशुदगी किसी के लिए मायने रखती है? और अगर वो सच बोलता है, तो क्या उसकी आवाज़ हमेशा दबा दी जाती है? फिल्म सामाजिक संवेदनहीनता और तंत्र की बेरुखी को उजागर करती है।
कहानी में क्या है खास?
Kaalidhar Laapata एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो समाज और व्यवस्था के बीच पिसते आम आदमी की आवाज़ बनता है। अभिषेक बच्चन का किरदार “विवेक कौशिक” एक स्कूल टीचर है, जो अचानक गायब हो जाता है। फिल्म की कहानी धीरे-धीरे परतें खोलती है और इस गुमशुदगी के पीछे के सिस्टम और समाज के अंधेरे को बेपर्दा करती है।
बात करे एक्टिंग की तो
‘कालीधर लापता’ में सभी कलाकारों ने अपने-अपने किरदारों को काफी संजीदगी और सच्चाई से निभाया है। आइए एक-एक कर जानते हैं किसने कैसी एक्टिंग की है:
अभिषेक बच्चन (विवेक कौशिक के रोल में)
अभिषेक का अभिनय इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत है। उन्होंने बिना ज़्यादा डायलॉग्स के, सिर्फ चेहरे के हाव-भाव, आंखों की बेचैनी और शांत बॉडी लैंग्वेज से किरदार में जान डाल दी। उनका किरदार एक ऐसा आम आदमी है जो सिस्टम के खिलाफ आवाज़ उठाता है ।अभिषेक ने इसे बहुत ही ईमानदारी और परिपक्वता से निभाया है। यह उनके करियर की सबसे गंभीर और असरदार परफॉर्मेंस में गिनी जा सकती है। अभिषेक की चुप्पी में भी नजर आई गूंज ,अभिषेक बच्चन ने इस बार फिर साबित किया है कि वे इंटेंस किरदारों में खुद को पूरी तरह ढाल लेते हैं। उनका अभिनय सधा हुआ है नाटकीयता से दूर, लेकिन भावनात्मक रूप से असरदार। उनकी आंखें और चुप्पी बहुत कुछ कह जाती है। अभिषेक बच्चन का अभिनय इस फिल्म की जान है। बिना ज़्यादा संवादों के भी वो अपने किरदार की पीड़ा और बेचैनी को गहराई से दिखाते हैं। उनकी आंखों में वो डर, निराशा और गुस्सा साफ झलकता है जो किसी ऐसे व्यक्ति में होता है जो सिस्टम के चक्रव्यूह में फंस गया हो। अभिषेक इस फिल्म में बेहद संयमित और संजीदा नज़र आते हैं। उनका अभिनय ओवरड्रामैटिक नहीं बल्कि ज़मीन से जुड़ा है जो आज के दर्शकों को ज़्यादा अपील करता है।
निम्रत कौर (पत्नी के रोल में)
निम्रत का रोल छोटा है लेकिन भावनात्मक रूप से मजबूत है। एक पत्नी जो अपने पति को खोजने के लिए सिस्टम से लड़ती है, लेकिन हर मोड़ पर निराश होती है — इस दर्द को उन्होंने संवेदनशीलता और संतुलन के साथ निभाया है। भले ही उनके सीन कम हैं, लेकिन प्रभावशाली हैं।
जाकिर हुसैन (पुलिस अधिकारी/जांचकर्ता)
जाकिर हुसैन हमेशा की तरह इस फिल्म में भी प्राकृतिक अभिनय करते हैं। उनका किरदार सिस्टम की बेरुखी और लापरवाही का चेहरा है ।और उन्होंने इसे बहुत कुशलता से निभाया है।
अन्य सह-कलाकार
स्कूल के छात्र, पड़ोसी और सरकारी अधिकारी जैसे किरदारों को निभाने वाले सभी सह-कलाकारों ने फिल्म की गंभीरता को बनाए रखा है। कहीं भी ओवरएक्टिंग या बनावटीपन नहीं दिखता।
कुल मिलाकर: फिल्म की एक्टिंग बहुत असली, सधी हुई और संवेदनशील है। हर किरदार ऐसा लगता है जैसे वो हमारे आसपास का ही कोई इंसान हो। कोई बड़ा ड्रामा नहीं सिर्फ सच्चाई और संवेदना।
निर्देशन: संयम और संवेदना का मेल
सौरभ वर्मा का निर्देशन बहुत सूझबूझ और परिपक्वता से भरा है। उन्होंने किसी भी सीन को ज़बरदस्ती ड्रामेटिक नहीं बनाया। कैमरे का इस्तेमाल बहुत सूक्ष्मता से किया गया है, फ्रेम्स कहानी बोलते हैं। फिल्म का ट्रीटमेंट एक डॉक्यूमेंट्री-जैसा महसूस कराता है, लेकिन उसमे सिनेमाई संवेदना भी बरकरार है। निर्देशक सौरभ वर्मा ने फिल्म को ड्रामेबाज़ी से बचाते हुए यथार्थ के करीब रखने की कोशिश की है। हर सीन में एक ठहराव है, एक मौन है, जो दर्शकों को सोचने पर मजबूर करता है। फिल्म की गति धीमी ज़रूर है, लेकिन विषयवस्तु को देखते हुए यह एक उद्देश्यपूर्ण रफ्तार मिलती है।
तकनीकी पक्ष: साधारण पर असरदार
फिल्म की सिनेमैटोग्राफी में अंधेरे और रौशनी का खेल है। फ्रेम्स में खालीपन है, जो उस सामाजिक शून्यता का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसमें यह कहानी घटती है। बैकग्राउंड स्कोर ज़्यादा भारी नहीं है, लेकिन जहाँ ज़रूरत होती है, वहां चुप्पी से ज़्यादा बोलता है। सिनेमैटोग्राफर ने अंधेरे और खालीपन का उपयोग बखूबी किया है। लो लाइट फ्रेम्स, लंबी चुप्पियाँ और धीमा बैकग्राउंड स्कोर—फिल्म की गंभीरता को और भी गहराता है।
कमजोरियाँ
फिल्म की सबसे बड़ी चुनौती उसकी गति है। पहले 30 मिनट में कहानी थोड़ी ढीली लगती है। क्लाइमेक्स ज़्यादा चौंकाता नहीं, लेकिन भावनात्मक रूप से असर जरूर करता है। कुछ दर्शकों को स्क्रिप्ट और एडिटिंग में कसावट की कमी महसूस हो सकती है। यह फिल्म तेज नहीं है, लेकिन उसका असर धीमा ज़हर बनकर बैठ जाता है — सोचने पर मजबूर करने वाला है। ‘कालीधर लापता’ फिल्म की कुछ प्रमुख कमियाँ (कमजोरियाँ) जो दर्शकों को महसूस हो सकती हैं:
1. धीमी गति (Slow Pace)
फिल्म की कहानी बहुत धीरे-धीरे आगे बढ़ती है, खासकर पहले 30-40 मिनट में। जिन दर्शकों को तेज़ रफ्तार कहानी पसंद है, उन्हें यह बोझिल लग सकती है।
2. अनुमानित क्लाइमेक्स (Predictable Ending)
फिल्म का अंत बहुत चौंकाने वाला नहीं है। दर्शक पहले से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि कहानी किस ओर जा रही है, जिससे थ्रिल का असर कम हो जाता है।
3. सपोर्टिंग कैरेक्टर्स की गहराई नहीं
निम्रत कौर और अन्य सह-कलाकारों के किरदारों को और बेहतर विकसित किया जा सकता था। कई बार लगता है कि उन्हें सिर्फ ज़रूरत भर का स्क्रीन टाइम मिला।
4. संवादों की कमी
कई जगहों पर फिल्म बहुत चुप हो जाती है। हालांकि यह निर्देशक की स्टाइल हो सकती है, लेकिन कुछ दर्शकों को भावनात्मक जुड़ाव में कमी महसूस हो सकती है।
5. आम दर्शकों के लिए कठिन विषय
फिल्म का विषय गंभीर और सिस्टम पर आधारित है — इसलिए यह हर दर्शक को मनोरंजक नहीं लगेगी। जो सिर्फ एंटरटेनमेंट ढूंढते हैं, उन्हें फिल्म थोड़ी भारी लग सकती है। कुल मिलाकर:’कालीधर लापता’ एक मजबूत संदेश वाली फिल्म है, लेकिन इसकी धीमी गति, सीमित संवाद और कुछ किरदारों की सतही प्रस्तुति इसे मास अपील वाली फिल्म नहीं बनने देती।
फिल्म क्यों देखें?
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अभिषेक बच्चन का करियर-बेस्ट परफॉर्मेंस देखने के लिए
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एक संवेदनशील, सामाजिक और सच्ची कहानी के लिए
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आज के शोरगुल वाले सिनेमा में एक शांत लेकिन असरदार अनुभव के लिए
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अगर आप content-driven cinema के शौकीन हैं
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अगर आपको अभिषेक बच्चन का इंटेंस अभिनय पसंद है
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अगर आप ऐसी फिल्मों की तलाश में हैं जो सिस्टम से सवाल करती हैं
- तो Kaalidhar Laapata आपके लिए एक ज़रूरी फिल्म है।
एक बहुत बड़ा सवाल
क्या एक आम आदमी के गायब हो जाने से सच में कोई फर्क पड़ता है?
फिल्म इस सवाल को बार-बार उठाती है। सिस्टम की बेरुखी, समाज की उदासीनता, और मिडल क्लास इंसान की लाचारी — ये सब फिल्म में बहुत अच्छे से दर्शाया गया है। विवेक न तो कोई राजनेता है, न कोई बड़ा कारोबारी, इसलिए उसकी तलाश में कोई हल्ला नहीं होता। यह फिल्म एक प्रतीक बन जाती है उन लाखों-करोड़ों लोगों की, जो हर दिन सिस्टम की दीवारों से टकराते हैं और गायब हो जाते हैं — कभी फिजिकली, कभी मेंटली, कभी पहचान से।
कमज़ोर नहीं, जरूरी फिल्म है
Kaalidhar Laapata एक अनुभव है। यह फिल्म उन लोगों के लिए नहीं है जो सिर्फ मनोरंजन चाहते हैं। यह उन दर्शकों के लिए है जो सिनेमा को समाज का प्रतिबिंब मानते हैं। यह फिल्म आपको अपने भीतर झाँकने को मजबूर करती है। यह पूछती है — अगर कल आप ग़ायब हो जाएं, तो कौन पूछेगा आपके बारे में?
अभिषेक बच्चन इस फिल्म में सिर्फ अभिनेता नहीं, बल्कि एक संदेशवाहक हैं — एक ऐसे आम आदमी की आवाज़, जो खुद को खो चुका है, लेकिन सवालों को पीछे छोड़ गया है। यह हर उस इंसान की कहानी है जिसकी आवाज़ को सुनने वाला कोई नहीं होता। यह फिल्म यह भी दिखाती है कि समाज कैसे धीरे-धीरे संवेदनहीन होता जा रहा है, और व्यवस्था कैसे उन लोगों को खत्म कर देती है जो सिस्टम से सवाल करते हैं।
अंत: जवाब नहीं, एक सन्नाटा छोड़ती है
फिल्म का अंत बहुत ज़ोरदार या चौंकाने वाला नहीं है, लेकिन यह आपको सोचने पर मजबूर कर देता है। विवेक वापस मिलता है या नहीं — यह सवाल उतना जरूरी नहीं रह जाता, जितना यह समझना कि कितने लोग हमारे आस-पास चुपचाप ग़ायब हो जाते हैं, और हम उन्हें भूल जाते हैं। यह फिल्म देखने लायक है, खासकर उन दर्शकों के लिए जो कंटेंट और परफॉर्मेंस को कहानी से ऊपर रखते हैं। Kaalidhar Laapata आपको अकेला छोड़ती है… लेकिन सिर्फ इसलिए कि आप सोच सकें, महसूस कर सकें… और शायद थोड़ा बदल सकें।
‘कालीधर लापता’ की कहानी सवाल बनकर रह जाती है: “क्या सिस्टम में एक आम आदमी की कोई अहमियत बची है?”
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