Article 143: राष्ट्रपति संदर्भ मामले पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी,लोकतंत्र प्रभावित होता है, पर टाइमलाइन तय करना संभव नहीं
Article 143: देश की राजनीति और संवैधानिक बहस के बीच सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक अहम फैसला सुनाया। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की ओर से भेजे गए 14 सवालों पर कोर्ट ने अपनी राय देते हुए साफ कहा है कि अदालतें राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा विधानसभा से आए बिलों पर फैसला लेने के लिए कोई तय समय सीमा नहीं लागू कर सकतीं। यह फैसला राज्यों और केंद्र के बीच चल रही कई संवैधानिक विवादों के संदर्भ में बेहद महत्वपूर्ण माना जा रहा है।
क्या है मामला?
हाल के वर्षों में कई राज्यों—जैसे तमिलनाडु, पंजाब, केरल, तेलंगाना—ने यह मुद्दा उठाया था कि राज्यपाल महीनों तक बिलों को रोके रहते हैं, जिससे शासन और विधायी प्रक्रिया प्रभावित होती है। इसी को लेकर राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी थी। यह संविधान में वह प्रावधान है जिसके तहत राष्ट्रपति किसी भी महत्वपूर्ण कानूनी या संवैधानिक सवाल पर कोर्ट की सलाह ले सकती हैं।
मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच ने 10 दिनों तक दलीलें सुनने के बाद यह निर्णय सुनाया।
Supreme Court verdict on President reference
सुप्रीम कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा:
- न्यायपालिका राज्यपाल या राष्ट्रपति के लिए समय सीमा तय नहीं कर सकती।
- बिलों पर फैसला लेना इन संवैधानिक पदों का अधिकार और जिम्मेदारी है।
- यह विषय संघीय ढांचे और संवैधानिक मर्यादा से जुड़ा है, इसलिए अदालत इसमें सीमा रेखा पार नहीं कर सकती।
- हालांकि कोर्ट ने यह भी कहा कि अत्यधिक देरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर करती है, इसलिए अपेक्षा है कि राज्यपाल और राष्ट्रपति “उचित समय” में फैसला करें।
इससे पहले 8 अप्रैल 2024 को तमिलनाडु मामले में सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि राष्ट्रपति को बिलों पर तीन महीने में फैसला करना चाहिए। लेकिन आज के फैसले में कोर्ट ने उस टिप्पणी को भी “परिस्थितिजन्य” बताया और भविष्य में कोई समय सीमा तय करने से इनकार कर दिया।
राष्ट्रपति के 14 सवाल—संविधान का बड़ा टेस्ट
राष्ट्रपति मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से जो सवाल पूछे, वे सभी राज्यपालों की भूमिका, बिलों पर उनकी शक्तियों और न्यायपालिका की सीमाओं को लेकर थे। इनमें शामिल थे:
- क्या राज्यपाल मंत्रिमंडल की सलाह से बंधे हैं?
- क्या उनके फैसलों की न्यायिक समीक्षा हो सकती है?
- क्या अदालत तय कर सकती है कि बिल पर फैसला कितने समय में होना चाहिए?
- क्या राष्ट्रपति के फैसलों की समीक्षा संभव है?
- क्या राज्यपाल की मंजूरी बिना कानून लागू हो सकता है?
इन सवालों से यह साफ दिखता है कि केंद्र और राज्यों के बीच राज्यपाल की भूमिका को लेकर लंबे समय से भ्रम और विवाद मौजूद है।
संविधान क्या कहता है?
अनुच्छेद 200 के अनुसार, राज्यपाल के पास बिल आने पर ये विकल्प होते हैं—
- मंजूरी देना
- बिल वापस भेजना
- बिल को राष्ट्रपति के पास आरक्षित करना
हालांकि, संविधान में यह नहीं लिखा कि राज्यपाल को कितने समय में फैसला करना होगा। यही वजह है कि यह मुद्दा बार-बार विवाद में आता रहा है।
अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के पास भी बिल पर फैसला लेने की शक्ति है, लेकिन यहां भी समय सीमा तय नहीं।
राजनीतिक पृष्ठभूमि – क्यों बढ़ा विवाद?
कई राज्यों ने हाल में आरोप लगाया कि राज्यपाल सरकार के कामकाज में देरी कर रहे हैं। तमिलनाडु सरकार ने कहा था कि उनके 10 बिल महीनों तक लंबित रहे। पंजाब, केरल और तेलंगाना में भी ऐसी ही स्थिति सामने आई।
इन्हीं घटनाओं के बाद राष्ट्रपति ने पहली बार इतने बड़े सवाल सुप्रीम कोर्ट के सामने रखे।
सुप्रीम कोर्ट की राय का महत्व
यह फैसला कई मायनों में अहम है—
- संघीय ढांचे को लेकर स्पष्टता मिली – कोर्ट ने कहा कि यह विषय कार्यपालिका का है, न्यायपालिका का नहीं।
- राज्यपाल की भूमिका पर दिशा-निर्देश – कोर्ट ने उम्मीद जताई कि संवैधानिक पदाधिकारी “उचित समय” में अपना कर्तव्य निभाएंगे।
- राज्य–केंद्र टकराव पर असर – यह राय भविष्य के राजनीतिक और संवैधानिक विवादों की दिशा तय कर सकती है।
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